Sunday, June 12, 2011

गुजरात में मुसलमानों की आमद ओर दारुल-उलूम का क़याम

      सरज़मीने सुरत में मुसलामानों कि आमदोरफ्त १५ हिजरी मुताबीक़ ६३६ ईस्वी में हज़रत अमीरुल मोमिनीन सैयदिना उमर फ़ारूक़ रदिअल्लहो तआला अन्हो के एहदे मुबारक से शुरू हुई. आपके बाद मुख़तलिफ वुफूदे इस्लाम आते रहे ओर तबलीग़े इस्लाम से लोगों को रुशनास करते रहे. इन में से कुछ तो चले गए ओर कुछ मुस्तक़िल क़याम करके यहीं रुक गए. उन लोगों ने यहाँ शादियां कीं. अब उनसे जो अवलाद पैदा हुई तो उनकी तालीम व तरबियत के लिए मदरसे क़ाइम किये गए.
      हज़रत ख़्वाजा
दाना साहब भी उलूम व फुनून के लिए एक दारुल उलूम अपनी ख़ान्क़ाह के क़रीब ही तामीर फरमाया था. जहां से हज़ारों तिश्न्गाने इल्म ने अपनी इल्मी प्यास को बुझाया ओर मुकम्मल तालीम हासिल करने के बाद इस्लाम ओर सिलसि-ल-ए नक्श्बंदियह कि जो खिदमात अन्जाम दीं वह सुनहरी हरफों से लिखने के क़ाबिल है. लेकिन अफ़सोस कि हालात ने कुछ ऐसी करवट ली कि हज़रत के विसाल के चंद सालों बाद ही मदरसा हालात की नज्र हो कर बंद हो गया.
      ११३३ हिजरी मुताबिक़ १७११ ईस्वी में अमानत खान मत्सदी सुरत ने दोबारह एक आलीशान मदरसा
हज़रत ख़्वाजा दाना साहब की ख़ान्क़ाह के इहाते में क़ाइम कीया बुलंद दरवाज़े से दाख़िल होने के बाद सीधे हाथ पर जो मेहराब नज़र आती है उसके ऊपर संगे मर्मर की तख्ती पर मदरसे की तारीख़ लिखी हुई है. तारीख़ ओर दोबारह तामीर करने के साल के दो बेत मन्दर्जा ज़ील हैं.

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